हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा |
अल्लामा इक़बाल का यह शेर, संघर्ष की भट्टी में तपकर,एक ग्लास दूध के लिए सेना में भर्ती होकर शिखर तक पहुँचने वाले फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह जी पर बिलकुल सटीक बैठती है |
1929 में गांव गोविंदपुरा जिला मुजफ्फर गढ़ (वर्तमान पाकिस्तान ) में जन्मे 13 भाई बहनों में आठवें नंबर पर मिल्खा सिंह ने 1947 के विभाजन की विभीषिका में अपने माता-पिता और भाई बहनों को खो दिया था ।
अपने बड़े भाई मक्खन सिंह (जो कि खुद सेना में हवलदार थे) की मदद से 1953 में भारतीय सेना में भर्ती हुए थे। यहाँ उनकी तनख्वाह ₹39. 50 पैसे थी।
जीत की शुरुआत
पहली बार विश्व स्तर पर मिल्खा सिंह ने अपनी पहचान तब बनाई, जब 1958 के कार्डिफ़ कॉमनवेल्थ गेम में उन्होंने तत्कालीन विश्व रिकॉर्ड होल्डर मैल्कम स्पेंस को 440 गज की दौड़ में हराकर स्वर्ण पदक जीता | यह सिर्फ मिल्खा सिंह ही बल्कि देश के लिए भी पहला मौका था जब किसी भारतीय ने राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीता था.
इस दौरान एक रोचक घटना हुई | मिल्खा सिंह को कार्डिफ में ही पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन और ब्रिटेन में तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त विजयलक्ष्मी पंडित ने नेहरू जी का संदेश देते हुए पूछा कि नेहरू जी ने पूछा है कि मिल्खा सिंह को क्या चाहिए ? इस पर मिल्खा सिंह ने अनुरोध किया कि जीत की खुशी में पूरे देश में एक दिन की छुट्टी घोषित कर दी जाए । जब वो भारत पहुंचे तो नेहरू जी ने अपना वादा निभा दिया था |
मिल्खा सिंह के सेना से जूनियर कमीशंड अधिकारी पद पर रहने के बाद पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों के अथक प्रयास और नेहरू जी के हस्तक्षेप के बाद पंजाब में डायरेक्टर ऑफ स्पोर्ट्स के पद पर आसीन हुए जहाँ वो 1998 तक सेवारत रहे।
कहते हैं उस समय मिल्खा सिंह को 12 सौ रुपए प्रति माह की तनख्वाह पर यह पद दिया गया था ।
पंजाब प्रांत के डायरेक्टर ऑफ स्पोर्ट्स के पद पर रहते हुए मिल्खा सिंह ने जालंधर के अंदर पहला स्पोर्ट्स स्कूल खोला था जहां पर उभरते खिलाड़ियों को प्रशिक्षण दिया जाता था ।
सम्मान
सिंह को भारत सरकार ने 1958 में पद्मश्री से सम्मानित किया | ये एक तरह से इस महानतम खिलाड़ी का अपमान ही था कि पद्मश्री के 43 वर्षों बाद अर्जुन अवार्ड देने का फैसला किया,लेकिन मिल्खा ने ये कहते हुए इस अवार्ड को लेने से मना कर दिया कि यह पुरस्कार युवा उभरते हुए खिलाडियों को दिया जाना चाहिए न कि 70 वर्षीय बुजुर्ग को |
एक बार गोवा में किसी समारोह में उन्होंने पुरस्कारों पर तंज कसते हुए कहा था कि भारत में अवार्ड प्रसाद की तरह बांटे जाते हैं और मुझे पद्मश्री के बाद अर्जुन अवार्ड देना वैसा ही था जैसे मास्टर डिग्री लेने के बाद किसी को बोर्ड का सर्टिफिकेट देना |
मिल्खा सिंह हमेशा कहा करते थे कि भारत रत्न का सम्मान सबसे पहले मेजर ध्यानचंद को मिलना चाहिए था ।
मिल्खा सिंह ने अपने कैरियर में कुल 80 अंतर्राष्ट्रीय दौड़ों में से 77 जीती थी जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है।
फ़्लाइंग सिख बनने की कहानी
1960 में मिल्खा सिंह को पाकिस्तान से निमंत्रण आया कि वह भारत-पाकिस्तान एथलेटिक्स प्रतियोगिता में हिस्सा लें चूँकि उन्होंने टोक्योएशियाई खेलों में वहां के श्रेष्ठ धावक अब्दुल ख़ालिक को 200 मीटर की दौड़ में हराया था इसलिए पाकिस्तानी चाहते थे कि अब दोनों का मुक़ाबला पाकिस्तान की सरज़मी पर हो | मिल्खा ने वहाँ जाने से इंकार कर दिया क्योंकि उन्हें जेहन में विभाजन की कई कड़वी यादें थीं | जब उनकी आंखों के सामने उनके पिता को क़त्ल कर दिया गया था | पर वो नेहरू जी के कहने पर पाकिस्तान गए और जीत का परचम लहराया |
मिल्खा सिंह को पदक देते समय पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अय्यूब खां ने ”मिल्खा को फ़्लाइंग सिख का ख़िताब दिया था |”
मिल्खा सिंह ने अपनी ऑटो बायोग्राफी द रेस ऑफ़ माय लाइफ लिखी जिसकी सह लेखिका उनकी सुपुत्री सोनिया सोनालिका हैं । इसी ऑटो बायोग्राफी के आधार पर राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने फरहान अख्तर अभिनीत एक शानदार फिल्म “भाग मिल्खा भाग” बनाई थी।
मिल्खा सिंह जी अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका संघर्ष,जीवट,परी कथा सरीखी सफलताएँ आने वाली कई पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेंगी | ॐ शांति